लोगों की राय

बाल एवं युवा साहित्य >> चमकीले फूल

चमकीले फूल

कामाक्षी शर्मा

प्रकाशक : विक्रम प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5457
आईएसबीएन :81-86303-26-X

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

222 पाठक हैं

आयु वर्ग:4+ बच्चों के साथ पढ़ने और उन्हें उत्साहित करने के लिए लिखी गई बाल कहानियाँ...

Chamkile Phool

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

चिड़िया! फूल! परी! गिलहरी! चुहिया! चन्दा! सूरज! नन्हे-नन्हे बच्चों की एक निराली दुनिया! जिन में अधिकांश पात्र इस धरती के होते हुए भी इस धरती के जैसे नहीं लगते। ऐसे लोग कहाँ दीखते हैं आज, इन छोटी-छोटी बाल कथाओं के माध्यम से उन से परोक्ष या अपरोक्ष रूप से हमारा साक्षात्कार होता है, तो कहीं गहरे सुकून का अहसास उपजने लगता है। बच्चों का संसार हमारे इस यथार्थ के संसार से कितना भिन्न, कितना कोमल, कितना मोहक है !

इस यांत्रिक-युग में किसी रूप में हरियाली का यह हरापन ही बचा रहे, यही कम बड़ी उपलब्धि नहीं होगी।
‘सोने का फल’, ‘चन्दा परी और अंजलि’, ‘चमकीले फूल’, ‘सूरज और चन्दा’, ‘ये दाने हैं अनमोल’ आदि रचनाएँ कहीं अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहती।
हिमांशु जोशी

कामाक्षी शर्मा का यह पहला बाल कहानी संग्रह है। कुल बाइस कहानियाँ बचपन के कोमल अहसासों के साथ-साथ बालमनोविज्ञान के सिद्धन्तों को परिभाषित करती चलती हैं।
विवेक गौतम

पन्ना-पन्ना आखर मोती

कामाक्षी शर्मा का पहला बाल-कथा संग्रह है ‘चमकीले फूल’ इसमें रंग-बिरंगे मुस्कुराते फूलों की तरह कहानियाँ अपने भीतर गंभीर जीवन दर्शन छिपाये हुए हैं। संग्रह की पहली कहानी ‘नन्हा सिपाही’ में रेशम, कमांडर साहब और सैनिक टुकडियों के साथ मिलकर दुश्मनों के छक्के छुड़ाकर शाबाशी का हकदार बनता है तो अंतिम कहानी ‘चलो नदी के पार’ का नायक राज्याधिकार पाकर जन सेवा में जुट जाता है। ये दोनों कहानियाँ नदी के तट की तरह बीच की कहानियों का तीव्र प्रवाह थामे हुए हैं। इन सभी कहानियों में लेखिका ने जिंदगी भर के अनुभव का निचोड़ दिया है जो बूँद-बूँद कर पाठकों का स्पर्श करता रहता है। इसमें राजा-महाराजाओं का अनुशासन, परियों की दरियादिली और मेहनत को इस तरह से उभारा है कि पाठक के पास अपनाने के सिवा कोई चारा नहीं रह जाता।

लेखिका ने हीरे-जवाहरातों, प्राकृतिक सम्पदा, आधुनिक जीवन के उतार-चढ़ाव, सभी को वाणी दी है। इकन्नी और दो पैसा खरीदारी वाला जमाना भी उन्हें लिखने के लिए प्रेरित करता है। यही कारण है कि उनकी हर कहानी अलग तरह की संवेदना लिए हुए है। उसमें प्रेम है, करूणा है और भाईचारा हैं। इनमें न केवल मानव अपितु पशु-पक्षियों के प्रति भी गहरा लगाव दिखाया गया है। जिस दिन जिंदगी से प्रेम निकल जायेगा उस दिन चारों तरफ मरूस्थल दिखाई देगा। खिलखिलाती मिनी, चमकीले फूल की सुगंध, खिलौने, एक थी चुहिया, सहेली बन जा, के पात्र प्यार और मेल-मिलाप की सुगंध बिखेरते हैं तथा साहसी राजकुमर, शहीदों को नमन, चलो नदी के पार, बहादुरी का इनाम कहानियाँ बच्चों में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरती हैं।

‘चमकीले फूल’ कहानी जो कथा-संग्रह का शीर्षक भी है बच्चों को लालच बुरी बला कहती चली जाती है। जिस दिन लालच नहीं रहेगा उस दिन धरती पर सोने-चाँदी के फूल बिखरते चले जाएँगे। बच्चों के विकास के लिए जो कुछ भी आवश्यक है उससे कहीं ज्यादा कामाक्षी ने इस नयी पीढी को सौंपा है।

लेखिका का भाषा पर अद्भुत अधिकार है। एक एक शब्द माला के मोतियों की तरह पिरोया हुआ है। प्रत्येक वाक्य संगीतात्मकता लिए हुए है। जैसे कागजों की रेशमी ज़मीन पर आबदार मोती बिखेर दिये गये हों। आज जबकि बाल-साहित्य के नाम पर पकी-अधपकी खिचड़ी पकाकर बच्चों के सामने परोस दी जाती है, ‘चमकीले फूल’ की रंगत दूर से ही दिखाई देती है, सब कुछ रंगमय सुगन्धमय।
आशा है बाल साहित्य में इस कथा संग्रह का भव्य स्वागत होगा।
राज बुद्धिराजा
अध्यक्ष, भारत-जापान सांस्कृतिक परिषद्

नन्हा सिपाही

खूबसूरत मशकोह घाटी के समीप एक गाँव में रहता था—रेशम। दस-बारह साल का गड़रिया। उसके पिता नहीं थे और माँ बीमार रहती थीं। इसलिए रेशम ही अपनी छह बकरियों की देख भाल करता, जिससे उसका गुजारा चल जाता था।
सब-कुछ आराम से ठीक-ठीक चल रहा था। एक दिन अचानक सीमा पार से फायरिंग शुरू हो गई। इधर से भी सेना ने जवाब देना शुरू किया। गाँव वाले अपने मवेशियों और सामान के साथ घर छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर जाने लगे। पर रेशम की माँ तो चल-फिर भी नहीं सकती थीं। इसलिए वे दोनों अपने भाग्य और भगवान के सहारे वहीं रह गये।

इधर सैनिकों ने अपने शिविर भी गाँव में लगा लिए थे। रेशम को वर्दी पहने सैनिक बहुत अच्छे लगते थे। वह भी सेना में भर्ती होना चाहता था। रेशम बहादुर भी था और बातूनी भी।

वह सैनिकों के साथ युद्ध की बातें करता और उनके काम में मदद करता। सैनिकों का भी, अपने घर व बच्चों से दूर, रेशम की मासूम बातों से मन बहल जाता। गाँव के ही पास सैनिकों के भोजन की व्यवस्था थी और शिविर से कुछ ही दूरी पर सेना की तोपें तैनात की गई थीं। रात में जब दुश्मन की चौकियों पर गोलाबारी की जाती तो रेशम को बहुत मजा आता। पर तोप के पास उसे सैनिक नहीं जाने देते थे। रेशम सैनिकों की सफलता पर खुश होता तो किसी सैनिक के शहीद होने पर रोते हुए सलामी देता।

एक दिन रेशम ने देखा कि कमांडर साहब दूर पहाड़ी की ओर इशारा करते हुए कुछ बातें कर रहे हैं। पर उसे समझ में कुछ नहीं आया क्योंकि वे अंग्रेजी में बोल रहे थे। वह यह तो जानता ही था कि पहाड़ी पर दुश्मन छिपे हुए हैं क्योंकि वहाँ से रुक-रुककर गोला बारी होती रहती थी। जब रेशम ने एक सैनिक से पूछा तो उसने बताया कि चोटी पर पहुँचने का आसान व छोटा रास्ता मालूम नहीं हो पा रहा है, उसी के लिए परेशान हैं, खोजने की कोशिश की जा रही है।

यह सुनकर रेशम उत्साहित होकर बोला ‘मुझे मालूम है, पहाड़ी पर नदी के पास से जाने का रास्ता है। वह छोटा रास्ता है, उधर से हमारा गाँव छोटा सा नजर आता है। मैं और मेरे दोस्त कई बार उधर अपनी भेड़-बकरियाँ लेकर जाते थे।’ लेकिन उसकी बातों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। तब रेशम ने दोबारा कमांडर साहब से कहा—‘साबजी! बड़ा होकर जब मैं फौज में भर्ती हो होऊगाँ तब भी तो लड़ूँगा, अभी तो मुझे ये छोटा सा काम कर लेने दीजिए, यदि किसी गोली के लगने से मैं मर जाऊँ तो मेरे लिए भी आप लोग सलामी देकर भारतमाता की जय बोलना।’ रेशम की ऐसी बातें सुनकर कमांडर साहब भावुक हो गए। उन्होंने बहादुर रेशम की पीठ थपथपाई और चार सैनिक उसके साथ कर दिए।

सैनिक रेशम के साथ पहाड़ियों पर छुपते-छुपाते हुए चढ़ने लगे। काफी देर बाद वे एक ऐसे स्थान पर पहुँच गए थे, जहाँ से पहाड़ी साफ दिखाई दे रही थी। सैनिकों ने वहाँ से दूरबीन की सहायता से दुश्मन की गतिविधियाँ नोट कर ली और वायरलेस पर अन्य साथियों को संदेश दे दिया। अँधेरा होते ही हथियारों से लैस एक टुकड़ी धीरे-धीरे वहाँ पहुँच गई। रेशम को वही रुकने का इशारा कर सभी सैनिक पेट के बल सरकते हुए आगे बढ़ने लगे। दुश्मन अभी भी गोलीबारी कर रहा था। रात भर उनकी तोपें गोले बरसाती रहीं। जब वे शांत हुए तो भारतीय सैनिकों ने उन पर हमला बोल दिया। अचानक हुए हमले ने उन्हें संभलने का मौका तक नहीं दिया। अपना गोला-बारूद तो वे पहले ही खर्च कर चुके थे। इस तरह भारतीय सैनिकों ने दुश्मनों को मार कर चोटी पर तिरंगा फहरा दिया। दूर से ही अपना प्यारा तिरंगा लहराते देख रेशम खुशी से ‘भारतमाता की जय’ के नारे लगाने लगा। उसे खुशी थी कि वह अपने देश के लिए कुछ काम तो आया। यूनिट के अधिकारीयों ने उसे बहुत प्यार किया व शाबाशी दी।

झील के किनारे

प्रतापगढ़ के राजा विराजसिंह अपनी प्रजा के सुख के लिए हर संभव प्रयास करते थे। परंतु राजकुमार अक्षतसिंह बहुत ही उद्दंड था। नित नई शरारतें करके लोगों को सताना उसकी आदत बन चुकी थी। न तो उस पर माता-पिता के समझाने का असर होता था, न ही गुरुजनों की आज्ञा का।

एक दिन राजकुमार की शिकायत लेकर पनिहारिनें महाराज के पास आई। अक्षतसिंह ने उनके घड़े फोड़ डाले थे। महाराज ने तुरंत उनके लिए पीतल के कलश मँगवा दिए। राजकुमार ने जब चमचमाते हुए कलश ले जाती पनिहारिनों को देखा तो उसने तेज बाणों के प्रहार से उनमें भी छेद कर दिए। पनिहारिनें फिर से राजकुमार की शिकायत करने राजदरबार में आ धमकीं। उस समय महाराजा विराजसिंह किसी मंत्रणा में व्यस्त थे। ऐसे में राजकुमार की शिकायत सुन कर वह बहुत ही क्रोधित हो गए, उन्होंने राजकुमार अक्षतसिंह को राजमहल से निकल जाने का आदेश दिया।

जब राजकुमार महल से जाने लगा तो छोटा राजकुमार भी उसके साथ चल पड़ा। चलते-चलते रात होने लगी। वे दोनों बातें करते-करते जंगल पहुँच गए थे। भूख-प्यास से दोनों का बुरा हाल था। साथ ही जंगल में से आती जानवरों की आवाज़ों से उन्हें डर भी लग रहा था, अतः वे दोनों पेड़ पर चढ़ कर बैठ गए और मन बहलाने के लिए बातें करने लगे। कुछ ही समय बाद हँसने की मधुर आवाज जंगल में गूँज उठी। चौंककर उन्होंने आवाज़ की दिशा में देखा। उन्हें जंगल के मध्य झील में क्रीड़ा करती सुंदर कन्याएँ दिखाई दीं। राजकुमार चकित से उन्हें देखते ही रह गए।

उन्होंने सोचा, ‘हम तो डर के कारण पेड़ पर चढे बैठे हैं और वे सुंदरियाँ आराम से खेल रही हैं।’ अतः वे दोनों पेड़ से उतर कर उनके समीप जा पहुँचे। राजकुमार अक्षतसिंह ने अपना नाम बताकर उनका परिचय पूछा। पहले तो वे एक दूसरे को देखती रहीं, फिर जो उनमें बड़ी थी वह बोली, ‘हम तीनों जलपरियाँ हैं। मेरा नाम लालनदे है, यह हीरनदे है और यह है फूलनदे। हमें जल से बाहर की दुनिया अच्छी लगती है। मानव हमें अच्छे लगते हैं, पर हमारे लोक में कहा जाता है कि मनुष्य धोखेबाज होता है और उससे बचना चाहिए। इसलिए हमें केवल पूर्णिमा की रात को जल से बाहर आने की आज्ञा है।’
राजकुमार को देख लालनदे जब हँसती थी तो उसके मुख से लाल रत्न झर रहे थे। हीरनदे के मुख से हीरे और फूलनदे के मुख से रंग-बिरंगे फूल झरते थे। राजकुमार मंत्रमुग्ध-सा उन्हें देख रहा था। तभी भोर का तारा चमका। लालनदे बोली, ‘लगता है हमें यूँ ही डराया जाता था। तुम लोग तो बहुत अच्छे हो।’ कहकर उसने मुठ्ठी-भर लाल रत्न उठाकर राजकुमार को दे दिए, परदेस से लौटकर आते समय मिलने का आग्रह किया।

दोनों भाई चलते-चलते दूसरे राज्य में पहुँच गये। उन्हें तेज भूख लगी थी। एक हलवाई की दुकान पर जाकर उन्होंने पेट भर खाना खाया और मूल्य चुकाने के लिए एक रत्न दे दिया। हलवाई ने वह रत्न फेंककर सड़क पर दे मारा और नकद धन की माँग करने लगा। उसी समय एक जौहरी वहाँ से गुजर रहा था। उसने धूप में किरणें बिखेरता रत्न देखा, तो वह उसका मोल जान गया। उसने रत्न उठाकर राजकुमार को दे दिया तथा हलवाई के दाम चुकता कर दिये।

जौहरी उन दोनों की वेशभूषा देखकर ही समझ गया था कि वे किसी धनवान परिवार के हैं। जब बड़े राजकुमार ने उससे कोई काम दिलाने का आग्रह किया तो वह उन्हें अपने साथ लिवा लाया तथा अपनी हवेली में ही ठहरा लिया। राजकुमार ने अपनी जेब से सारे रत्न निकालकर दे दिये। इतने सारे रत्न देखकर, जौहरी की आँखे चौंधिया गईं। वह बोला, ‘इनका मोल तो हमारे राजा ही दे सकते हैं।’

राजकुमार के कहने पर जौहरी वे सब रत्न राजा को दे आया, राजा ने ढेर सारा धन दिया तथा रत्नों का हार अपनी बेटी के लिए बनाने को कह दिया। जौहरी ने राजकुमार को धन दे दिया तथा हार बनाकर महल में दे आया। राजकुमारी हार पहन कर खेलने गई तो उसकी सखियाँ बोलीं, ‘हार तो बहुत सुंदर है, पर ऐसे ही कानों के बूंदे और नाक की नथ भी होती तो कितना अच्छा लगता।’

महल में आकर राजकुमारी रूठकर बैठ गई। सबने मनाया, सबने पूछा, पर कुछ नहीं बताया। न खाया, न पीया। आखिर राजा साहब को पता चला तो वे अपनी लाडली बेटी को मनाने आए, तो वो बोली, ‘ऐसे ही लाल रत्नों के बुंदे और नथ बनवाकर दीजिए, नहीं तो मैं किसी से बात नहीं करूगी।’

राजा ने जौहरी को बुलाकर कहा, ‘ऐसे ही रत्नों की नथ और बुंदे बनाकर दो, नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं।’
जौहरी ने राजकुमारों को धमकाया—‘राजा साहब कहते हैं वैसे ही लाल रत्न और लाकर दो नहीं तो कैद कर लिए जाओगे और फिर मार दिए जाओगे।’ राजकुमार बहुत परेशान हुआ। पर जौहरी ने छोटे भाई को अपने पास रोक लिया तथा बोला—‘जब रत्न ले आओगे तब अपने भाई को ले जाना।’

राजकुमार चलते-चलते जंगल में उसी झील के किनारे जा पहुँचा। वह जानता था कि जलपरियाँ केवल पूर्णिमा की रात को ही आती हैं। फिर भी वह उन्हें पुकारने लगा। आश्चर्य! झील में लहरें उठीं और तीनों जलपरियाँ जल से निकल आईं। राजकुमार को देख वे प्रसन्न होकर कहनें लगीं, ‘तुमने हमें याद किया, तुम हमसे मिलने आए हो ?’


प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai